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मनुस्मृति और शूद्र (भाग -1)
शूद्रों में कुछ जातियाँ अस्पृश्य समझी जाने लगीं। उनको नगर से बाहर घर दिये गए। कुओं और तालाबों पर पानी भरने और मन्दिरों आदि पवित्र स्थानों में जाने से रोका गया। उनको अच्छे उद्योग करने की भी आज्ञा न दी गई। यह यत्न किया गया कि उनकी सन्तान कभी भी उभरने न पावे। यह मनु का अभिप्राय कदापि न था।

जन्नत का बाग और जहन्नुम की आग
तो झूठ को ईश्वर की प्रसन्नता का बाधक मानना पड़ेगा कल्पित भय और झूठा लालच दिलाने वाले लोग स्वयं भी झूठ बोलते हैं। और दूसरों को झूठ बोलने की प्रेरणा करते हैं। कुरान शरीफ भी तो कहती है कि ‘मिथ्या कल्पना सच्चाई के सामने काम नहीं आती।।

वेद प्रचार कैसे हो?
इस छोटे से प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। प्रथम तो वेदप्रचार से क्या तात्पर्य है? दूसरे केन लोगों में प्रचार करना है? कोई ऐसी अमृतधारा नहीं जो सब रोगों और सब रोगियों पर लागू की जा सके।

श्री शंकराचार्य तथा श्री स्वामी दयानन्द
श्री शंकर स्वामी के उच्च ग्रन्थों तथा उनके अनुयायियों के इतिहास से कहीं यह नहीं झलकता कि उनके समक्ष ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ जैसी कोई भावना रही हो। उन्होंने भारतीय सम्प्रदायों के विरुद्ध लोहा लिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती साधारण मनुष्य थे
स्वामी दयानन्द न ईश्वर थे, और न ईश्वर के अवतार, न ईश्वर के दूत (पैग़म्बर)। वे तो साधारण मनुष्य थे। साधारण शब्द को सुनकर चौंकिये मत। सोचिये ! साधारण शब्द का प्रयोग करके मैं न तो स्वामी दयानन्द की निन्दा करना चाहता हूँ न उनकी पूजनीयता में कमी।

जब गुरुदत्त विद्यार्थी ने महर्षि दयानन्द को मृत्यु का वरण करते हुए देखा
महर्षि दयानन्द का जब अजमेर में मृत्यु समय आ रहा था, तो विद्यार्थी गुरुदत्त मन की आँखों से इस अद्भुत दृश्य को देख रहा था। जिस शान्ति और भय रहित रीति से ऋषि ने प्राण त्यागे, वह शान्ति और निर्भयता गुरुदत्त के संशयात्मिक मन को ईश्वर सत्ता का न भूलने वाला उपदेश दे रही थी।

वेद और योग का दीवाना पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी
उसे योग और वेद की धुन थी। जब गुरुदत्त जी स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ते थे, तभी से उन्हें शौक था कि जिसके बारे में योगी होने की चर्चा सुनी, उसके पास जा पहुंचे। प्राणायाम का अभ्यास आपने बचपन से ही आरंभ कर दिया था।

ज्ञान का आदिमूल
वनस्पति शास्त्र (Botany) के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉक्टर बीरबल साहनी का कहना था कि सृष्टि के आरम्भ में बहुत थोड़ा ज्ञान था धीरे-धीरे उन्नति करते हुए वह उस अवस्था को प्राप्त हो गया जहाँ आज विज्ञान पहुँचा हुआ है

प्रजातन्त्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था – गुरुदत्त
देश की अराजकता का सम्बन्ध तो इस बात के साथ है कि सन् 1951 से लेकर सन् 1962 तक चीनियों की आक्रान्त प्रवृत्ति का ज्ञान होने पर भी, और सैनिक अधिकारियों के सचेत और सतर्क करने पर भी, भारत सरकार ने कुछ नहीं किया। करों से प्राप्त धन, अधिकारी और उनको मत देने वालों की वृद्धि में प्रयोग होता रहा।

श्री आदरणीय स्वामी यति नरसिंहानन्द जी के नाम एक पत्र
आज हमारा सामान्य जन सिद्धान्त व शास्त्र विधान से कोसों दूर चला गया है। इस पक्ष में मेरा केवल एक विनम्र निवेदन है कि कृपया इस प्रकार की त्रुटियों को सुधार कर शास्त्र विधि के अनुसार प्रचार-प्रसार किया जाये, जिससे हमारे समाज में सामान्य जन अपने धर्म के शुद्ध स्वरुप को प्राप्त कर पायें।
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यज्ञ और अग्निहोत्र के विषय में सामान्य विचार

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